भजन के तीन अंग… संबंध अभिधेय प्रयोजन.
संबंध न हो तो प्रयोजन का कभी पता नहीं चलता. इस जगत के व्यक्ति संबंध हीन होकर भजन करने का प्रयास करते हैं, इसीलिए उनके भजन का अंग केवल भोगों तक ही सीमित होता है,अपनी स्वार्थ पूर्ती तक।लेकिन संत कहते हैं की मनुष्य स्वयं का स्वार्थ क्या है ये भी नहीं जानता । हमारा स्वार्थ क्या है ? भगवत प्रेम,भगवान की प्राप्ति यही वास्तवीक स्वार्थ,यही प्रयोजन है। संबंध कैसे प्रकाशित होगा? इसका पहला चरण हम भगवान के दास हैं ये अनुभव होना। जिसको इस बात का अनुभव नहीं है उसके लिए भगवान बहुत दूर हैं…जिसको इस बात का अनुभव हो गया उसके लिए भगवान करीब है । जिस अवसर में व्यक्ति संबंध से साथ युक्त होकर भजन करता है, उस अवसर पर भगवान कृपा करके प्रयोजन सिद्धि प्रदान करते हैं । शुरुआत में जो भजन होता है वो संबंध प्रदान करता है वही आगे अभिधेय बन जाता है.जीव को संबंध ज्ञान न होने से भगवान से प्रेम नहीं हो पाता। इस संसार के विकारों में पड़कर जीव अपना प्रयोजन क्या है ,भगवान के साथ संबंध इस पर विचार ही नहीं कर पाता, भगवान की सेवा में तो आता है लेकिन नाम का आश्रय नहीं लेता । नाम प्रभु की कृपा के बिना संबंध कभी भी जागृत नहीं हो सकता ।
नाम कैसा होना चाहिए? जो भक्त के हृदय से निकल के आता है ,उसका जब कीर्तन, श्रवण होता है वही नाम के प्रति हमारा अनुराग बढ़ाता है नाम का कीर्तन कैसे होना चाहिए? अप्रतिहता अविच्छिन होना चाहिए जिसमें कोई अवरोध न हो, तब जा कर संबंध प्रकट होगा । संबंध प्रकाश का एक और प्रयोजन है प्रार्थना , की प्रभु आज भी भोगों के प्रति मेरी रूची है नाथ लेकिन मैं आपसे संबंध की आशा रखता हूं आप मुझ पर कृपा करें इस तरह से प्रार्थना करते हुए जब हरिनाम होता है तो भगवान की कृपा हम पर हो जाती है । इस तरह नाम करते करते एक दिन संबंध प्रकट हो जाएगा और हमारा प्रयोजन भी सिद्ध हो जायेगा। इसके बाद होगा ये की हमसे भगवान कभी दूर नही जाएंगे और ना ही हम भगवान के चरणों से दूर होंगे..